क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स क्या है? जानें रिस्क से बचने के लिए शेयर बाजार कैसे इसका इस्तेमाल करता है

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) ने इंडेक्स डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट्स के लिए क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स में बदलाव किया है. एक ऑर्डर में लॉट रखने की निर्धारित संख्या को क्वांटिटी फ्रीज लिमिट कहा जाता है. ये नई लिमिट्स 1 सितंबर से लागू होंगी. एनएसई सर्कुलर के अनुसार, प्रमुख इंडेक्सेस के लिए नई फ्रीज लिमिट्स इस प्रकार होंगी – 

  • बैंक निफ्टी – 900  
  • निफ्टी 50 – 1,800 
  • फिनिफ्टी (Finnifty) – 1,800 
  • निफ्टी मिडकैप सेलेक्ट – 2,800  
  • निफ्टी नेक्स्ट 50 – 600 

आइए जानते हैं कि आखिर क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स क्या है और इक्विटी डेरिवेटिव्स सेगमेंट में इनकी क्या भूमिका है?
क्या होती हैं क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स?

क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स किसी तय F&O कॉन्ट्रैक्ट का ज्यादा से ज्यादा ऑर्डर साइज होता है. एक्सचेंज आमतौर पर बड़े या गलत ऑर्डर को रोकने के लिए ऐसी लिमिट्स तय करते हैं, जो मार्केट की स्टेबिलिटी को ठेस पहुंचा सकते हैं. स्टॉक एक्सचेंज समय-समय पर इन लिमिट्स में बदलाव करते हैं और जैसे-जैसे मार्केट लेवल्स बढ़ते हैं, वैसे ही एक्सचेंज भी आमतौर पर फ्रीज लिमिट बढ़ा देते हैं, जैसा कि NSE ने अपने लेटेस्ट संशोधन में किया है.
कितनी कारगर हैं ये लिमिट्स?

क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स बहुत जरूरी हैं. उदाहरण के लिए, किसी कॉन्ट्रैक्ट के 1,000 लॉट का ऑर्डर अनजाने में 1,00,000 लॉट के रूप में पंच हो सकता है. ऐसे में, क्वांटिटी फ्रीज लिमिट एक अहम भूमिका निभाती है क्योंकि इतना बड़ा या अनजाने में पंच किया गया ऑर्डर एग्जिक्यूट नहीं होगा. क्योंकि कोई भी ऑर्डर क्वांटिटी फ्रीज लिमिट से ज्यादा नहीं हो सकता है. इस लिमिट से ज्यादा के किसी भी ऑर्डर को एक्सचेंज सिस्टम खुद ही रिजेक्ट कर देगा. 
हालांकि, कुछ निवेशकों ने क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स को दरकिनार करने का तरीका ईजाद किया है. इसे ‘आइसबर्ग ऑर्डर’ कहा जाता है. दरअसल, संस्थाएं ज्यादातर ऐसे ऑर्डर देती हैं, जो क्वांटिटी फ्रीज लिमिट से ज्यादा होते हैं. आइसबर्ग ऑर्डर बड़े ऑर्डर को छोटे-छोटे हिस्सों में बांट देता है और हर हिस्से का साइज क्वांटिटी फ्रीज लिमिट से नीचे तय होता है. ऐसी स्थिति में, सिस्टम किसी भी ऑर्डर को रिजेक्ट नहीं करेगा और निवेशक फ्रीज लिमिट से ज्यादा लॉट रख सकेगा. 
क्या मार्केट को कोई खतरा है?
भारतीय कैपिटल मार्केट का रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क काफी मजबूत है. भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) और एक्सचेंजों ने ऐसी चुनौतियों से निपटने के लिए कई उपाय किए हैं. क्वांटिटी फ्रीज लिमिट्स के अलावा इनमें मार्केट वाइड पोजीशन लिमिट्स और क्लाइंट/ब्रोकर पोजीशन लिमिट्स सहित कई तरीके शामिल हैं. 


Source: CNBC