दरअसल, हाल के समय में रिटेल निवेशकों की बढ़ती दिलचस्पी के चलते डेरिवेटिव ट्रेडिंग में जबरदस्त उछाल आया है। इसी के मद्देनजर SEBI ने पहले ही कॉन्ट्रैक्ट की एक्सपायरी सीमित करने और लॉट साइज बढ़ाने जैसे कदम उठाए हैं, जिससे यह ट्रेडिंग महंगा हो गया है।
प्री-IPO वाली कंपनियों की जानकारी देने के लिए आएगा एक प्लेटफॉर्म
पांडे ने यह भी बताया कि SEBI अब कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय और स्टॉक एक्सचेंजों के साथ मिलकर एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार करेगा, जहां प्री-IPO कंपनियों से जुड़ी जानकारियां ट्रांसपेरेंट और आसान तरीके से उपलब्ध कराई जाएंगी।
प्री-IPO कंपनियां क्या होती है?
प्री-IPO कंपनियां वे निजी कंपनियां होती हैं जो अभी तक शेयर बाजार में लिस्ट नहीं हुई हैं, लेकिन भविष्य में इनिशियल पब्लिक ऑफरिंग (IPO) लाने की तैयारी कर रही होती हैं। इसका मतलब यह है कि ये कंपनियां फिलहाल पब्लिक से पूंजी नहीं जुटातीं, बल्कि कुछ चुनिंदा निवेशकों, जैसे वेंचर कैपिटलिस्ट, प्राइवेट इक्विटी फंड्स या एंजेल इन्वेस्टर्स से ही फंड लेती हैं। जब कोई कंपनी IPO लाती है, तो वह पहली बार अपने शेयर आम जनता को बेचती है और शेयर बाजार में लिस्ट होती है। प्री-IPO कंपनियों में निवेश करना जोखिम भरा हो सकता है, लेकिन अगर कंपनी का परफॉर्मेंस बेहतर रहा, तो यह निवेशक के लिए काफी फायदेमंद भी हो सकता है।
टेन्योर और मैच्योरिटी क्या होती है?
- टेन्योर (Tenure): यह वह टोटल समय अवधि होती है जब से डेरिवेटिव कॉन्ट्रैक्ट शुरू होता है और जब तक वह वैलिड रहता है। उदाहरण के लिए, अगर आपने अगस्त में एक फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदा जो सितंबर में एक्सपायर होता है, तो उसका टेन्योर एक महीने का हुआ।
- मैच्योरिटी (Maturity): यह वह तारीख होती है जब डेरिवेटिव्स कॉन्ट्रैक्ट की मियाद पूरी हो जाती है यानी उसका अंतिम दिन। इसे हम एक्सपायरी डेट भी कहते हैं।
Source: Economic Times